guliver ki chauthi yatra
दृष्टि किसी उन्नायक की पड़ती मेरे कृतित्व पर भी (सॉनेट)
दृष्टि किसी उन्नायक की पड़ती मेरे कृतित्व पर भी
तो क्या मैं भी यों अनदेखा रहता जग की आँखों से
मुग्ध हुए घर आँगन में तो सुनकर मेरे गीत सभी
पर क्या नप जाता न गगन भी मेरी नन्हीं पाँखों से
कालिदास के कुल में हूँ पर मिला न शिप्रा-तीर मुझे
हूँ गन्धर्व किन्तु अभिशापित, कारा में ही बंद रहा
काल करे भी मुक्त कभी यदि लौह-यवनिका चीर मुझे
क्या हो लाभ! उड्डयन-क्षण तो पंखरहित निस्पंद रहा
पर ये भाव क्षणिक थे, मैंने सदा राजसुख ही भोगा
सुनता हुआ दूर से आती जयध्वनियाँ अपने यश की
था मन में विश्वास, अजाना सदा न मेरा स्वर होगा
निश्चय मोहेगी जग को, मैंने की जो वर्षा रस की
मिला मुझे तुझसे जो, झूठे थे सब सुख उसके आगे
क्या, यदि आत्महीनता के भी भाव कभी मन में जागे
June 2000