guliver ki chauthi yatra

शलभ ! मिला जो तुझे स्नेहमय नयनों के अनुराग से
उससे अधिक और क्या पाता, लिपट रूप की आग से!

हुआ परस से रूप मलिन है;
अतनु अतनु ही थिर चिर-दिन है
माना ऐसे प्रेम कठिन है
किन्तु भोग का सच्चा सुख तो मिलता है बस त्याग से

क्षणिक मिलन-सुख-हित विह्वल हो
चाह रहा छूना तू जिसको
रंजित है उसका आनन तो
तुझसे अगणित मुग्ध प्रेमियों के शोणित के दाग से

यह तेरे मन की छलना है
जिससे तू यों बिसुध बना है
छिपा ज्योति में तिमिर घना है
तुझे लीलने फैलाए है फण जो विषधर नाग से

अब भी चेत, वचन सुन मेरे
दे भी सतत दीप के फेरे
लग न गले से, वह यदि घेरे
जिस होली में आप जले तू, बचके रह उस फाग से

यदि प्लेटो की सीख सँजोता
यों प्राणों से हाथ न धोता
रूप-सिन्धु में खाता गोता
यदि न मिलन को व्याकुल होता तट के विषमय झाग से

शलभ ! मिला जो तुझे स्नेहमय नयनों के अनुराग से
उससे अधिक और क्या पाता, लिपट रूप की आग से!

May 2010