har moti me sagar lahre
जिसको तूने दिया सहारा
क्या फिर शेष रहा था पाना उसको जग के द्वारा !
साथ भले ही सब ने छोड़ा
तूने तो मुँह कभी न मोड़ा
पितापुत्र-संबंध न तोड़ा
धरी बाँह, जब हारा
पर क्या कहूँ प्रकृति इस इस मन की
मैंने भिक्षुक-वृत्ति ग्रहण की
जा-जा ड्यौढ़ी पर जन-जन की
कौड़ी-हित सिर मारा
कौन यहाँ सुनता, प्रभु! मेरी !
कर दे क्षमा, आस बस तेरी
पूछा भी था, ‘क्यों की देरी’
जब गजेन्द्र को तारा !
जिसको तूने दिया सहारा
क्या फिर शेष रहा था पाना उसको जग के द्वारा !