hum to gaa kar mukt huye

पास रहकर भी कितनी दूरी!
पाकर भी तुमको पाने की साध हुई कब पूरी!

पीर नस-नस में बल खाती है
कितना भी देखूँ दर्शन की प्यास न बुझ पाती है

मोती के पानी-सी झलमल करती छवि सिंदूरी

काँपती चितवन झुकी-झुकी -सी
चिर-अव्यक्त व्यथा है कुछ नयनों में रुकी-रुकी-सी

अधरो में अकुलाती जैसे कोई बात अधूरी

पास रहकर भी कितनी दूरी!
पाकर भी तुमको पाने की साध हुई कब पूरी!

Feb 87