jyon ki tyon dhar deeni chadariya

यह जग जगपति का सपना है
जो पल को उसकी पलकें झँपने से मूर्त बना है

नित को सत्य, यथार्थ समझकर
क्यों विलुप्ति की शंका से डर
हम चिर-जीवन-हित हों कातर!
सपने के जीवों का तो अस्तित्व न कुछ अपना है

जड़ या चेतन, हम असार हैं
व्यर्थ अमरता के विचार हैं
क्यों इस ‘मैं’ का लिये भार हैं!
एक स्वप्नदर्शी ही सच है, उसको ही जपना है

ये शत-शत सिद्धांतों के स्वर
क्या हैं ये उत्तर-प्रत्युत्तर!
सपना तो टिकता ही पलभर
वृथा स्वयं की क्षणभंगुरता के दुख में तपना है

यह जग जगपति का सपना है
जो पल को उसकी पलकें झँपने से मूर्त बना है