kagaz ki naao
दुखों के आतप से तप-तपकर
है बह रहा शिलाद्रव-सा मेरे उर से रस-निर्झर
वही बन रहा गीत उछलकर
कविता कभी लहरकर पलभर
कभी दूर तक फैल धरा पर
महाकाव्य है सुन्दर
कुछ उसके तट पर ही रुकते
कुछ अंजलि भरने को झुकते
कुछ लेते डुबकियाँ न थकते
करते स्नान निरंतर
दुखों के आतप से तप-तपकर
है बह रहा शिलाद्रव-सा मेरे उर से रस-निर्झर