kagaz ki naao

न छूटे यह श्रद्धा की डोर
इससे ही तो बँध पाया तू, ओ मेरे चितचोर!

ओ अव्यक्त, अनाम, अगोचर!
कैसे मैं तुझको पाता धर
यदि तू साथ न इससे बँधकर

आता मेरी ओर!

इसके ही बल से दिख पायी
अंतर में तेरी परछाईं
अब पापों की सकल कमाई

दूँगा तुझे बटोर

विनय यही बस, जो हो आगे
तू यह बंधन तुड़ा न भागे
देख-देख तुझको भय त्यागे

   काटूँ निशि-तम घोर

न छूटे यह श्रद्धा की डोर
इससे ही तो बँध पाया तू, ओ मेरे चितचोर!