kagaz ki naao
कोई झरना इस मरुथल में फूटेगा
मन! सोच न कर
यह झंझाओं का क्रम निश्चय टूटेगा
मन! सोच न कर
माना अब हैं कंठ सूखते प्यास से
काँप रहा तू पल-पल यम के त्रास से
पर प्रभु रहते पल न विमुख निज दास से
तू ही कैसे एक दृष्टि से छूटेगा!
मन! सोच न कर
जीवन में फिर से वह वेला आयेगी
धरा हरित अंचल सम्मुख फहरायेगी
इस दुर्दिन की स्मृति भी ठहर न पायेगी
बीतेंगी दुख की घड़ियाँ, सुख लूटेगा
मन! सोच न कर
कोई झरना इस मरुथल में फूटेगा
मन! सोच न कर
यह झंझाओं का क्रम निश्चय टूटेगा
मन! सोच न कर