kagaz ki naao

कोई मत पढ़े, मत सुने
मैंने अपने ही लिये नित नव, शब्दों के जाल हैं बुने

प्रातः रवि-रश्मि से उमँगकर
पंछी छेड़ते जो तान सुन्दर
रोक देते हैं क्या, सुरों पर

यदि कोई सिर नहीं धुने!

नदी, जिसे सिन्धु ने पुकारा
अर्घ्य कब जोहे तीर द्वारा!
आप बन सुरसरि की धारा

पाये फल-फूल शतगुने

मैं भी निज भावना में गाता
क्या है यदि जग को नहीं भाता!
सुध तो लेंगे ही जग-विधाता

    सुर भी हों बेसुरे चुने

कोई मत पढ़े, मत सुने
मैंने अपने ही लिये नित नव, शब्दों के जाल हैं बुने