kavita
मरघट का फूल
नीचे चिता जल रही, ऊपर आसमान जलता है
जलती हुईं हवा के झोंकों में ही वह पलता है
ग्राम-पुरजन-परिजन से दूर
आप अपनी सुगंध में चूर
झूठे सपने देख-देखकर अपने को छलता है
नीचे चिता जल रही ऊपर आसमान जलता है
नहीं षोडशी कोई खोले अपने भीगे बाल
यहाँ फूल चुनने आती है छिपकर ऊषा-काल
नहीं चलते चितवन के तीर
कभी होती न हृदय में पीर
साँय-साँय करता रहता है मरघट का कंकाल
नहीं षोडशी कोई खोले अपने भीगे बाल
चूम किसीकी अलस पलक, झूमे अलकों के साथ
एक फूल की अभिलाषा ही कितनी होगी, नाथ!
वह भी क्या पूरी हो पाती!
मन की मन में ही रह जाती
नहीं तोड़ने को भी कोई इसे बढ़ाता हाथ
चूम किसीकी अलस पलक, झूमे अलकों के साथ
पर क्या जाने, रजनी के सूनेपन में सस्नेह
वह आती हो दिन में जिसकी भस्म हो चुकी देह!
खिल-खिलकर हँसती, उछालती,
अंचल से मृदु हवा डालती
तोड़ इसे ले जाती हो चुपके से अपने गेह
पर क्या जाने, रजनी के सूनेपन में सस्नेह
1941