kavita
कौन
धूल में बिखरी पड़ी मृदु, मौन
फूल-सी कोमल, शुभे ! तुम कौन!
विजन में एकाकिनी, अनजान
रूप-अप्सरि! मधुरिमे छविमान!
चपल अलकों बीच करतल टेक
गा रही भूले पथिक का गान
दूर तक फैली तटी सुनसान
व्योम में जलता प्रखर दिनमान
सरसता-सी पृथुल वन-पथ बीच
और तुम यों गा रही हो गान
धूलि- घूसर इंद्रधनुषी चीर
निमिल पलकें, शिथिल बाहु-मृणाल
अलस उँगली में अधूरे स्वप्न
बुन रही अनजान छवि के जाल
आह! अल्हड़ है तुम्हारा रूप
री मृगेक्षिणि! चकित दृग-खग-बाल
मलय-चुंबित श्यामघन-से केश
घेर सरसिज को बिछे शैवाल
प्रेम की मनुहार-सी चिर मौन
विजन में एकाकिनी तुम कौन!
मौन क्या तब भी रहोगी, प्राण!
जब जगेगा प्राण में मधुमास
विकल यौवन का उमड़ता सिंधु
बन बहेगा प्रिय-मिलन की प्यास
ले मधुर अज्ञात से कुछ भाव
क्या न फड़केंगे अधर सुकुमार
पवन-अंचल में अचंचल बैठ
चाँदनी का देखकर अभिसार
जब सुनोगी कोकिला के गीत
भंग कर नीरव निशा का मान
जब सुनोगी गीतिका के साथ
दूर से आता हुआ आह्वान
सच बताना, फिर रहेंगे पाँव
देख सम्मुख मिलन का उल्लास
आरसी-शशि में निरख तम-बिंब
जब निशा देगी बिछा भुजपाश
सिहरकर अणु-अणु कहेगा–‘कौन’ ?
और तुम क्या रह सकोगी मौन!
ले प्रणय का प्रथम चुबन, प्राण!
वायु भर देगी सुरभि-निःश्वास
पल्लवों से झर पड़ेंगे गीत
राशि रत्नों-सा बरस हिम-हास
श्याम, मौक्तिकमय तुम्हारे केश
चंद्रकिणों में सिहर, हिल-डोल
पा किसी के मृदु करों का स्पर्श
जब बनेंगे माधवी-हिंडोल
उतर अलका की पुरी से मंद
स्वनमय कविता उठेगी झूम
प्रायः होंगे एक, एकाकार
प्राण-धन कीं नैश छाया चूम
मौन, प्रिय में जा मिलोगी मौन
तुम स्वयं ही पूछती-सी–‘कौन’?
1940