kitne jivan kitni baar

इसी को कहते हैं क्या जीना!
पग-पग पर पड़ता वियोग का तिक्त हलाहल पीना

सुखप्रद भी दुखप्रद है यह प्रिय होकर भी है त्रासद
राजमुकुट भू पर लुढ़के हैं औंधे पड़े सभासद

महाकाल हँसता है मुख पर दिये आवरण झीना

कभी सजाये फूल कभी हर पँखुरी नोच गिरायी
महल बनाकर ढाते उसको तिल भर दया न आयी

जोड़-जोड़कर तोड़ा उसने दे-देकर कुल छीना

इसी को कहते हैं क्या जीना!
पग-पग पर पड़ता वियोग का तिक्त हलाहल पीना