kitne jivan kitni baar

सुरों की धारा बहती जाती
जो भी तृषित तीर पर आता पल में प्यास बुझाती

प्रेमाकुल मानस से ढलकर
अगणित ग्राम-पुरों से चलकर
भावुक उर के तीर्थस्थल पर

रुक-रुककर बल खाती

नीर न अब वह क्षीरोपम हो
लहरों का कलरव कम-कम हो
आगे अगम सिन्धु-संगम हो

फिर भी क्या थम पाती!

क्षण-क्षण होता रहे विसर्जन
फिर भी व्यर्थ न इसका जीवन
दोनों तीर हुए हैं पावन

धरा हरित लहराती

सुरों की धारा बहती जाती
जो भी तृषित तीर पर आता पल में प्यास बुझाती