mere geet tumhara swar ho
बढ़ रहा है सागर मुँह फाड़े
पर क्या, प्रिये! हथेली तेरी आ न सकेगी आड़े!
टिक पाता न लहर में तिनका
पर दृढ़ आत्मबोध है जिनका
कहते, ‘ज्वार न अंतिम दिन का
जड़ से हमें उखाड़े
‘जो है निखिल सृष्टि को धारे
यदि दुख में मन उसे पुकारे
तो फिर काल लाख सिर मारे
कुछ अपना न बिगाड़े
प्रेम सत्य यदि, युग आत्मायें
बिछुड़ यहाँ फिर भी मिल जायें
छूटें हम न, छूट भी जायें
ये भुजबंधन गाढ़े
बढ़ रहा है सागर मुँह फाड़े
पर क्या, प्रिये! हथेली तेरी आ न सकेगी आड़े!