mere geet tumhara swar ho
साँस जब तक चल रही, सही है
घटते नीर मीन की जैसे, अब तो दशा वही है
जो बालू के महल बनाऊँ
क्यों उनपर इतना इतराऊँ!
आ नित यहाँ नये रच जाऊँ
मेरी नियति यही है
दिन भर खेल खेल अपने सब
दिखा चुका मैं नट के करतब
मुझे लौटना है घर को अब
संध्या उतर रही है
बस अवकाश कि नाचूँ, गाऊँ
जब तक दैव-अनुग्रह पाऊँ
सुख यह भी कैसे, कब जाऊँ
जो कुछ ज्ञात नहीं है
साँस जब तक चल रही, सही है
घटते नीर मीन की जैसे, अब तो दशा वही है