mere geet tumhara swar ho

अकेलापन

जाऊँ कहाँ, खुलूँ भी किससे, मन का मिलना हो किसके सँग
नहीं कहीं भी जी लगता अब, हो पहले-सा भी जग जगमग
यों तो नगरी बड़ी हो गयी, भवन अधिक ऊँचे-ऊँचे हैं
किंतु कहाँ वे बंधु गये जो मिलते रहे गले से लग-लग!

राजमार्ग पर बैठा अब भी मैं गाने का हठ हूँ ठाने
सभी यहाँ अपनी धुन में हैं, रूककर कौन मुझे पहिचाने !
अब मैं ही हूँ श्रोता अपना पाठक और प्रशंसक भी मैं
आत्मलीन हो बुनता जाता, गत्त जीवन के ताने-बाने