nahin viram liya hai

सच-सच कहना, ओ नभवासी !
‘कभी तुम्हें भी विकल न करती ममता की गलफाँसी?’

सुन जग की विपत्तियाँ भारी
क्या न टूटती नींद तुम्हारी
रचकर महासृष्टि यह सारी

आप हुए संन्यासी!

बंधन हो यह मोह भले ही
क्यों न तुम्हें बाँधूँ इससे ही
तम में एक मूर्ति चिर-स्नेही

मुझको दिखे पिता-सी

महाशून्य सागर है आगे
ज्ञान व्यर्थ यदि भक्ति न जागे
मैं इस बल पर ही भय त्यागे

हूँ दर्शनाभिलाषी

सच-सच कहना, ओ नभवासी !
‘कभी तुम्हें भी विकल न करती ममता की गलफाँसी?’