nao sindhu mein chhodi

दीपक मंद हुआ जाता है
पर उसका आलोक मधुर प्राणों का छंद हुआ जाता हैं

बिना तेल, पाती या लौ के
बढ़ती ज्योति न रुकती रोके
क्‍या यदि झेल पवन के झोंके

वह निःस्पंद हुआ जाता है

तम के तार-तार कर भू पर
अब कवि की द्युति उठती ऊपर
आँखों से बहते आँसू, पर

मन निर्द्वन्द्व हुआ जाता है

लघु या महत्‌, तेज या धीमा
छोड़ क्षुद्र जड़ता की सीमा
तेरा अमृतपुत्र, धरती-माँ!

अब स्वच्छंद हुआ जाता है

दीपक मंद हुआ जाता है
पर उसका आलोक मधुर प्राणों का छंद हुआ जाता है