naye prabhat ki angdaiyiyan
जलते हुए घर में से
मित्र मुझे शिकायत करते दिखते हैं–
‘आप इतनी तेजी से क्यों लिखते हैं!
अभी तो हम आपकी पुरानी कृतियाँ भी
पढ़ नहीं पाये हैं,
आप चोटियों पर चोटियाँ लाँघते जा रहे हैं
जब कि हम अभी ढलान पर भी चढ़ नहीं पाये हैं।’
मैं उन्हें क्या उत्तर दूँ,
समझ में नहीं आता है!
वे तो लोमस की आयु लिखाकर आये हैं,
दो-चार वर्ष इधर-उधर भी हो जायँ,
तो उनका क्या जाता है!
पर मेरे पास तो !
महाकाल की मंजूषा से उधार लिया
यही एक लघु रत्न कण है,
अनंत की अज्ञात अविच्छिन्नता में
अपना कहने को यही एक नन्हा-सा क्षण है,
मैं एक छोटी-सी लहर हूँ
जो शीघ्र ही तट की बाँहों में समा जायगी,
प्रकाश का आभास भर हूँ
जिसे पल-दो-पल में
अँधेरे की नागिन खा जायगी,
मैं काल की अवहेलना कैसे कर सकता हूँ
वे तो अजर- अमर होकर आये हैं
पर मैं तो किसी भी क्षण मर सकता हूँ।
इसलिए मित्रों का उपालंभ झेलकर भी
मुझे लिखते जाना ही होगा
इस जलते हुए घर में से जितना कुछ बच सके, बचाना ही होगा।
1983