nupur bandhe charan

तुम्हारे रूप-मधुवन में समीरन मैं बनूँ तो क्‍या!
तुम्हारी आँख में अंजन, निरंजन मैं बनूँ तो क्‍या!
सुरभि दिशि-दिशि बसी जाती
पलक छवि में फँसी जाती
कँटीले चाँद-सी तिरछी
हँसी उर में धँसी जाती
तुम्हारे प्राण के घन में तड़ित-कण मैं बनूँ तो क्‍या!
खिली कचनार-सी बाँहें
न मन की मिल सकी थाहें
उफनते दूध-सा यौवन
विकसते फूल-सी चाहें
तुम्हारे स्नेह गोपन में पुलक-क्षण मैं बनूँ तो क्या!
मलय की साँस पीने दो
कली के ओंठ सीने दो
पलक की छाँह में मुझको
न मरने दो, न जीने दो
तुम्हारी चाह के धन में, अकिंचन मैं बनूँ तो क्‍या!
तुम्हारे रूप-मधुवन में समीरन मैं बनूँ तो क्‍या!
तुम्हारी आँख में अंजन, निरंजन मैं बनूँ तो क्‍या!

1949