pankhuriyan gulab ki
देखो कहाँ पर आ गया है मोड़ अपनी बात का
आँखें झपकनी लग गयीं, पिछला पहर है रात का
हम ज़िंदगी के खेल से उठकर कभी भागे नहीं
यों तो सदा बनता रहा नक्शा हमारी मात का
धड़का कभी दिल भी कोई, माना हमारे वास्ते
होंठों पे जो आये नहीं, क्या मोल है उस बात का !
चुप होके भी तो दो घड़ी बैठो नज़र के सामने
रुक-रुक के जब बरसे घटा तब है मज़ा बरसात का !
हरगिज़, गुलाब ! ऐसे न वे लगते गले से आपके
कुछ और ही जादू हुआ इस दर्द की सौगा़त का