ravindranath:Hindi ke darpan me
केनो यामिनी ना जेते जागाले ना बेला होलो मरि लाजे
शरमे जड़ित चरणे केमोने चॅलिबो पथेर माझे
आलोक परसे मॅरमे मरिया
हेरो गो शेफाली पड़िछे झरिया
कोनोमते आछे परान धरिया कामिनी शिथिल साजे
निबिया बाँचिलो निशार प्रदीप उषार वातास लागि
रजनीर शशी गगनेर कोने लुकाय शरण मांगि
पाखि डाकि बोले ‘गेलो विभावरी’
वधू चॅले जॅले लॅइया गागरी
आमि ए आकुल कॅबरी आवरि केमोने जाइबो काजे
जब थी रात
जब थी रात, नभ में था चाँद भी
जगाया था क्यों नहीं मुझे तभी
कैसे जाऊँ मैं अब ऐसे हाल में !
पसर रही बिंदी, खुली अलकें,
रह-रह झँपती अलस पलकें
नशा-सा है डगमगाती चाल में
जागे लोग रवि के उदय से,
पथ पर चलूँ भी अब कैसे !
मरूँ क्या न लोक-लाज भय से,
मछली-सी फँसी मैं तो जाल में
शेफाली दिन के आलोक से डरी,
छिपा रही मुख लाज से भरी
कामिनी जैसे-तैसे है ठहरी
पत्तों की ओट लिए डाल में
प्रात-पवन-झकोरों से झुककर
दीपशिखा जल रही है भूक्-भुक् कर
भीत शशि पश्चिम दिशा की ओर मुख कर
शरण–हेतु कूद गया ताल में
पक्षी पुकार रहे, “बीती विभावरी”
वधुएँ चलीं घर को जल से भर गगरी
कैसे मैं जाऊँ ! है अनसँवरी कवरी
काजल के दाग लगे गाल में
रात रहते जगाया था क्यों न मुझे
कैसे जाऊँ मैं अब ऐसे हाल में!