sab kuchh krishnarpanam

ओ मेरी मानस-सुंदरी!
तेरी ही खोज में फिरता रहा हूँ मैं
गाता ये पीड़ा के छंद री!

गहरे अँधेरे में, अम्बर के घेरे में
किरणों की चादर लपेटे
तारों के पथ में, तुझे रथ में सपनों के
देखा है लेटे ही लेटे
आहट न पायी कि कब घर में आयी थी
तू खोलकर द्वार बंद री!

गीतों के स्वर जो रहे फूटते ही
मेरे प्राण की बाँसुरी से
कानों में कितनी भी उँगली दबाऊँ मैं
जाते नहीं पर वे जी से
अंतर में बजता ही रहता निरंतर है
नुपुर तेरा मंद-मंद री!

धरती-गगन में कि घर में कि वन में हो
तेरी ही लौ झिलमिलायी
हर मोड़ पर ज्यों रही साथ मेरे तू
सम्मुख भले ही न आयी
जब भी नयन मैंने मूँदे तो पाया है
साँसों में तेरा ही स्पंद री!

पर जब भी घूँघट उठाया है तेरा
तो देखी है अपनी ही छाया
खुद को हटाकर ही देखूँगा तुझको मैं
क्यों यह समझ में न आया!
देखे बिना तुझको कैसे मिटाऊँगा
मैं अपने प्राणों का द्वंद री!

ओ मेरी मानस-सुंदरी!
तेरी ही खोज में फिरता रहा हूँ मैं
गाता ये पीड़ा के छंद री!