sab kuchh krishnarpanam

बार-बार छलते हो प्राणधन !
बार-बार फूलों से आँचल भर देते
बार-बार फिर से उन्हें लेकर धर लेते
बार-बार मुझे निरावरण कर देते
पहनाकर रेशमी वसन

कभी झूम उठता मन अँधेरे में
पाकर तुम्हें बाँहों के घेरे में
दूर कभी परदेशी डेरे में
काटे नहीं कटता एक क्षण
बार-बार छलते हो प्राणधन

फरवरी 85