sab kuchh krishnarpanam

महासिंधु लहराता
और लिये नौका तट पर मैं गाता, केवल गाता

जी करता लहरों में धँस कर
मोती कुछ ले आऊँ बाहर
पर मेरा मन दुर्बल, कातर

    गहरे उतर न पाता

गया प्रात, दुपहर भी ढलती
मन में अब आँधी-सी चलती
एक क्षीण प्रत्याशा पलती

‘कोई मुझ तक आता’

पर चिंता क्या! स्वयं दौड़ कर
सिकता पर पद-चिन्ह छोड़ कर
मिल लूँगा मैं इसी मोड़ पर

 तुझसे सृष्टि-विधाता!

महासिंधु लहराता
और लिये नौका तट पर मैं गाता, केवल गाता