seepi rachit ret

उत्तरी पवन से

आज नींद से जाग उठे तुम हिम-अवनी-सी शांत, सुधर
मृदु नवनीत-धवल, कोमल, सरसी की शय्या पर तंद्रिल,
शत-शत बाहु-मृणालों में भर बाँह, कमल-मुख पर मुख धर
अर्ध रात्रि में सोये थे जो नग्न लहरियों से घुल-मिल।

गत यामा, मार्तड-सदृश उद्ंड! आज तुम खड़े हुए
भुज-ग्रंथियाँ छुड़ा वामाओं की, उद्दाम मुक्त स्वर में
विजय-गीत गाते उन्नत गिरि-शिखरों पर, जो झड़े हुए
‘पतझड़-पत्रों-से, लो, नीचे ढहे आ रहे पलभर में।

ध्रुव-दिगंत-पथ से मदांध मेघों की लेकर सैन्य प्रचंड
क्रुद्ध जूझते सिंधु-तरंगों से, अंबर तरु को झकझोर
धूमकेत-से चले आज तुम, विंध्य-सेतु के करते खंड
गहन असूर्यम्पश्या विषुवत-रेखा-गत वन-भू की ओर

वासंती-मद-मूर्छित मैं भी जड़-सा, आज पड़ा भू पर,
लेते चलो उठाकर मुझकों भी निज बाँहों में, ऊपर।

1941