sita vanvaas
न था प्रभु को यों चंचल पाया
ज्यों पल-भर के लिए हिमालय भी अस्थिर हो आया
बोले– वन में जाकर, लक्ष्मण!
सीता की सुधि लाओ तत्क्षण
जाने क्यों सहसा मेरा मन
है अतिशय घबराया
‘लगा मुझे मिथिलेशकुमारी
सजल-नयन, पथ-श्रम से हारी
आयी यहाँ पाँव रख भारी
मलिन-वेश, कृशकाया
‘लोकभावना का कर आदर
अत्याचार किया अबला पर
क्यों मैंने पतिधर्म भुलाकर
बस नृपधर्म निभाया!
न था प्रभु को यों चंचल पाया
ज्यों पल-भर के लिए हिमालय भी अस्थिर हो आया