सीता-वनवास_Sita-Vanvaas
- देखना था यह दिन भी आगे
- कैकेई मन में थी पछताती
- विदा करने निकली जब माता
- कौन मारुति को धैर्य बँधाता!
- नाथ! आज्ञा दें, अब मैं जाऊँ
- न यह संवाद जनकपुर जाये
- भले पावक को सौंप न पाये
- मैं था भाई बहुत दुलारा
- बात अंगद को तनिक न भायी
- इन्द्र की सभा रो पड़ी सारी
- देख मुनि-आश्रम-छटा निराली
- स्वप्न में सीता मिथिला आयी
- चली जल को सीता सुकुमारी
- कहाँ हो, महावीर बलशाली
- स्वामी को कभी हनुमान
- कभी मेरी सुधि भी आती है
- विजय की चर्चा थी जन-जन में
- राम! ‘लौटा दे बहू हमारी’
- रात-भर प्रभु को नींद न आयी
- न था प्रभु को यों चंचल पाया
- बाल-क्रीड़ा जब लव-कुश करते
- सीता आँसू रोक न पायी
- अवध में छाया विस्मय भारी
- गाते रामायण मृदु स्वर
- शोक का सागर ज्यों लहराया
- मिला दुख ही दुख जब क्षण-क्षण में
- पवनसुत चरणों में लपटाये
- शिलाखंडों ने राह बनायी
- जहाँ जी चाहे सीता जाये’
- देवर! अग्निकुंड धधकाओ
- सती बैठी पद्मासन मारे
- कंठ मुनि शिष्यों के भर आये
- स्वामी! यह क्या मन में आया
- प्रभो! अच्छा पत्नीव्रत पाला !
- विजय रावण पर कैसे पायी!
- मन कैसे ‘सीताराम’ कहे!
- देख आँसू प्रभु के नयनों में
- वन में राजसभा उठ आयी
- सीते! लौट अवध में आओ
- सुन पति-वचन स्नेह में साने
- पुत्री! सूना भवन बसा दे
- उठ कर बाल्मीकि तब बोले
- शिष्य लवकुश ये दोनों प्यारे
- देखती जननी मौन रही
- सीता! शोक भुला दे मन का
- वचन सुन-सुन कर प्यारे-प्यारे
- माना, दोष बड़ा था मेरा
- अवध में कैसे पाँव धरूँ!
- सभा में सन्नाटा था छाया
- जो हैं जन्म-जन्म के स्वामी
- नित्य देनी है अग्निपरीक्षा
- अब है परम शांति अंतर में
- नहीं भी लौट अवध में जाये
- गोद में ले ले धरती माता!
- लव-कुश बेसुध दौड़े आये
- सती को लेने जब रथ आया
- विरह ही अंतिम सत्य भुवन का
- देख प्रभु-नयन अश्रु से छाये
- उठा पाताल धरा पर लाऊँ
- अवध की शोभा उजड़ गयी
- नाथ! जब सरजू लेने आयी
- नाम लेते जिनका दुख भागे
- “यदि गुलाबजी ने और कुछ भी न लिखकर केवल ’गीत-वृन्दावन’ और ’सीता-वनवास’ की रचना की होती तो भी हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवियों में उनकी गणना होती.”
-इंदुकांत शुक्ल (यू॰एस॰ए॰)