sita vanvaas

“कभी मेरी सुधि भी आती है!
स्वामी ! क्या महलों में वन की वायु कभी जाती है!

यद्यपि स्वार्थ, मोह जब भूले
नरता ईश्वरता को छू ले
पर जब मेघ गगन में झूले

तड़ित न त्तड़पाती है!

“जब पथ में मैं कभी गयी थक
गाँस निकाला किये देर तक
अब भी, नाथ! यहाँ हैं कंटक

प्रिया न चल पाती है

‘शर-चिह्नित अंजलि के जल में
दिखती जब लंका झलमल में
मेरी छवि अशोक-तरु-तल में

व्यथा न उपजाती हैं!’

‘कभी मेरी सुधि भी आती है!
स्वामी ! क्‍या महलों में वन की वायु कभी जाती है !’