sita vanvaas

विजय की चर्चा थी जन-जन में
कौन समझ पाता प्रभु की जो हार हुई जीवन में!

प्राणप्रिया की सुधियाँ क्षण-क्षण
चुभती थीं ज्यों वृश्चिक-दंशन
थे विष-तुल्य सभी सुख-साधन

सीता बिना भवन में

बाहर पुष्पवृष्टि थी होती
पर भीतर आत्मा थी रोती–
‘कैसे होगी यह दुख ढोती

वह सुकुमारी वन में!’

‘क्या कुछ करें! कहाँ ले जायें!
कैसे राजा को बहलायें!’
देख भाल पर की रेखायें

बंधु विकल थे मन में

विजय की चर्चा थी जन-जन में
कौन समझ पाता प्रभु की जो हार हुई जीवन में।