sita vanvaas

राम! ‘लौटा दे बहू हमारी’
कंचन थाल परोस, सजल-दृग, बोली माँ दुखियारी

‘तूने जग का ताप मिटाया
पर वह लौट तुझी पर आया
सारे राजभवन में छाया

धुआँ उसीका भारी

“सोचा भी–”भरती कुल का ऋण
सीता कैसे काट रही दिन!”
तू सब सह सकता है, लेकिन

हम सब हैं संसारी

‘बंधु-सखा सब धीरज खोते
पुरवासी भी अब हैं रोते
क्यों वन का दुख, तेरे होते

झेले जनकदुलारी !’

राम! ‘लौटा दे बहू हमारी’
कंचन थाल परोस, सजलदृग, बोली माँ दुखियारी