sita vanvaas

‘स्वामी को कभी, हनुमान!
पा सुअवसर, वत्स! मेरा भी दिलाना ध्यान

प्रेमवश हठ किया मैंने, थी अबोध, अजान
क्यों मिला उस स्वल्प त्रुटि का दंड बेपरिमाण!

असुर-पुर में वास, अग्नि-प्रवेश, दुख, अपमान
ये यथेष्ट नहीं! रचा फिर यह कठोर विधान

रहे तन में आज तक जो ये हठीले प्राण
क्‍या न मेरी विवशता का नाथ को है ज्ञान!

सौंप यह थाती उन्हें मैं, है यही अब आन
मूँद लूँ ये नेत्र, कर मुख-छवि-सुधा का पान’

स्वामी को कभी, हनुमान!
पा सुअवसर, वत्स! मेरा भी दिलाना ध्यान