sita vanvaas
‘माना, दोष बड़ा था मेरा
कंचनमृग के अंधमोह ने जो मुझकों था घेरा
‘क्यों विचार वह मन में आया
देवर को भी दूर हटाया
छली असुर ने जब की माया
“लक्ष्मण’ ‘लक्ष्मण’ टेरा?
‘स्वामी तो सर्वज्ञ रहे, पर
क्यों दौड़े उस पर ले धनु-शर?
क्यों न हृदय का मोह मिटाकर
मुझे कुमति से फेरा”
‘जो कुछ भी आगे फिर बीता
क्या उसमें दोषी थी सीता!
जिस रविकर ने भवतम जीता
मुझको दिया अँधेरा’
‘माना, दोष बड़ा था मेरा
कंचनमृग के अंधमोह ने जो मुझको था घेरा!