tujhe paya apne ko kho kar
आस्था दृढ़ हो यदि अंतर में
तो पल भी कातरता क्यों हो जग से विदा-प्रहर में!
क्यों चिंता-दुख की हो छाया
यदि सोचूँ कि छोड़कर काया
यह चैतन्य जहाँ से आया
जाना उसी नगर में !
क्यों चलते क्षण मन अकुलाये
यदि विश्वास न यह डिग पाये
कोई है बाँहें फैलाये
मेरे हित अम्बर में!
क्यों तन के मिटने का हो डर
यदि समझूँ कि पुरुष चिर-अक्षर
लौटूँगा नव छवि में भूपर
तिमिर-सिन्धु तिर कर मैं
आस्था दृढ़ हो यदि अंतर में
तो पल भी कातरता क्यों हो जग से विदा-प्रहर में!