tujhe paya apne ko kho kar

कहाँ से छलिया ‘मैं’ तू आया!
जड़-चेतन के बीच दुभाखी! तू किसकी है छाया?

जिस तन को कहता तू मेरा
दो दिन का उसमें हो डेरा
चेतन से भी नाता तेरा

पर शाश्वत रह पाया ?

जिसके लिए त्याग, तप सारे
मुक्ति तुझी से है वह, प्यारे!
यदि चित्‌ सिर से तुझे उतारे

मिटे मोह की माया

यों न दैव के कर में खेलूँ
क्षण-क्षण त्रास मरण का झेलूँ
यदि संन्यास तुझी से ले लूँ

क्यों डोलूँ अकुलाया

कहाँ से छलिया ‘मैं” तू आया!
जड़-चेतन के बीच दुभाखी! तू किसकी है छाया?

अप्रैल 2000