usar ka phool
जलता समक्ष बिजली का बल्ब प्रगल्भ-हास
मैं देख रहा अनिमेष कक्ष का मृदु प्रकाश
बिस्तुइयाँ एक बड़ी, चिपटी
उल्टी होकर छत से लिपटी
निज पूँछ मोड़ बंकिम शशि-सी
चुप देख रही सिमटी-सिमटी
लट्टू पर लट्टू आये जो मिलनातुर दृग में लिए प्यास
वे ठिठक, सहमते हुए, बढ़े
पुद्ठे इस ओर तनाव चढ़े
करते प्रकाश की परिक्रमा
मुख के समीप आ अभय अड़े
जबड़े फाड़े वह सोच रही–‘कर लूँ कैसे झट एक ग्रास’
दुधमुँहे शलभ के ढूहों पर
बिल्ली जैसे लघु चूहों पर
लो, क्रुद्ध सिंहनी टूट पड़ी
बछड़ों के समुद-समूहों पर
कुछ अंगहीन, कुछ मुख-विलीन, कुछ फुदक उड़ रहे शेषश्वास
शिशु एक उन्हीं में क्षीणकाय
जो बचा किसी विधि मरण-प्राय
पद-कंपित, चकित, विवर्ण, भीत
है चाह रहा, उड़, भाग जाय
गुन मत्स्य-न्याय पर बिस्तुइया निज मुँह खोले आ रही पास
पीछे से लाती एक अन्य
भगिनी को स्मृतियाँ स्नेह-जन्य
खा पीन हुई पहली से पर
वह पुच्छ-चपेटाघात-धन्य
फिर रही लोमड़ी-सी उलटी, खट्टे अंगूरों से निराश
तब तक जैसे प्राप्तावकाश
ले ग्राण हथेली पर हतास
उड़ता शिकार दायें-बायें
आगे-पीछे हो दूर-पास
अहि-शिशु को जैसे वैनतेय, तक रही अहेरिन भी सहास
पर एक छिन्न, फड़फड़ा अपर
क्रमश: मुख में जाता थरथर
चल चरण मात्र, धृत-मुक्त गात्र
आधा बाहर, आधा भीतर
मैं सोच रहा सभ्यता-दीप्त मानव-जग भी न प्रवृत्ति-दास!
जलता समक्ष बिजली का बल्ब, प्रगल्भ-हास
मैं देख रहा अनिमेष कक्ष का मृदु प्रकाश
1946