usar ka phool

जैसी मेरी कविता है वैसी है काली रात
तारों के अक्षर जलते हैं
भाव सिसकते-से चलते हैं
कमल-पंक्ति-वंदी मधुपों-से
छंद सतत निःस्वन ढलते हैं
पृष्ठ-भूमि दोनों की काली, शून्यभरी, तमसात्‌
कविता मेरी अमर वियोगिन
अंग भभूत रमाये जोगिन
जलकर काली हुई विरह में
और उधर रजनी प्रिय के बिन
दूर बसे साजन दोनों के, हुई एक-सी बात
वह उजड़े खँडहर की रानी
यह युग-युग की विरह-कहानी
दोनों का अंतर सूना है
दोनों की आँखों में पानी
आँसू से कागज, ओसों से भीग रहे तरु-पात
मत समीर का अंचल डोले,
कविता क्‍यों अवगुंठन खोले!
होड़ लगी दोनों में, देखें
कौन सुबह से पहले बोले
नयनों में चल रही अभी तो नीरता की घात
जैसी मेरी कविता है वैसी है काली रात

1940