usar ka phool

तड़प रहा है हृदय तुम्हारा देख निठुर व्यवहार

तड़प रहा है हृदय, तुम्हारा देख निठुर व्यवहार
कर पाऊँगा अब न, प्रिये! मैं तुमसे आँखें चार!
बंद, सदा को द्वार तुम्हारे, मेरे हित, सुकुमारी।
अरे! सदा के लिए मिट गया वह स्वर्णिम संसार

वह संसार जहाँ हम-तुम बस केवल दो प्राणी रहते थे
स्मितिमय नयन मिला, भौंहों से बातें मनमानी कहते थे
तनिक विरह-आशंका से ही सपने बन पानी बहते थे
प्राणों में प्रतिपल पुलकों की पीड़ा अनजानी सहते थे
वह संसार मिट गया क्षण में
स्मृति रह गयी सुरभि-सी मन में
सुरधनुषी लहरों से
मुखरित हास्य-स्वरों से
देखा मैंने सपनों के वे रंगमहल सम्मुख ढहते थे

विनत गुलाबी पलकें, बेबस मृग-से दृण सुकुमार
ओ पाषाणी! विदा माँगते हुए न अधर तुषार!

कितनी मोहक सलज दृष्टि वह हँसी, व्यंग्य का क्रम था।
भोली बातें, मुग्ध जिन्हें मैं पीता नित संभ्रम था!
वह कौमार्य-कुंद कलियों से लदा रूप क्या कम था
हृदय चुराने के हित, जिस दिन परिचय प्रथम-प्रथम था
तुमने मुस्का मधुर परस में
नशा भर दिया जो नस-नस में!
मैंने मुड़ कर देखा
वक्र झुकी विधु-लेखा
नव पल्‍लव में मचल रहा ज्यों मधुऋतु का उद्गम था

खुले केश गोरी ग्रीवा पर, चंचल भृकुटि-प्रसार
भाल-बिंदु, भुज नव मृणाल-से, गुंफन को तैयार

दोष तुम्हारा नहीं, भाग्य का, मेरा, जगती का है
अपना नहीं प्राण प्राणों का, जीवन जो जी का है
श्याम कचों में चमक रहा नव स्नेहभरा टीका है
राग नया अधरों पर, नूतन पाटल कवरी का है
खड़ी द्वार पर हृदय मसोसे
आँसू पोंछ रही आँखों से
क्रमश: दूर हुई तुम
मेरी छुईमुई तुम
हुआ विवशता की भट्टी में पूर्व प्रणय फीका है।

नहीं विवशता तो क्‍या होता यह कठोर व्यवहार
हाय! उसीसे, कभी दिया था जिस पर निज मन वार!

कभी मिले देशांतर में पहचान मुझे फिर लोगी!
क्रूर-काल-परिवर्तन का क्रम भुला, साथ भी दोगी!
फिर पहले-सी ही हँस-हँसकर मुझको मुग्ध करोगी!
या देखा-अनदेखा करती, वीतराग ज्यों योगी
सम्मुख से नत-मुख, अनचीन्ही
जाओगी कलि-सी मदभीनी!
वह कौमार्य-निवेदन
अब यह आत्म-प्रवंचन
दोनों भुला याद रक्खोगी बातें बस उपयोगी

लघु गृह-कार्य, वचन बच्चों के, तर्पण, तिथि, त्यौहार
ग्रसे मरण-छाया से, ढोती पल पर पल के भार

क्या जाने, साधना सफल यदि मेरी यह हो जाये
विश्व मुझे नैवेद्य समझकर, हाथों-हाथ उठाये।
हृदय तुम्हारा पिछली बातें चुपके फिर दुहराये।!
‘नहीं पराये वे जो उस दिन स्नेह माँगने आये
छिपी देख जिनको तू गृह में
चले गये जो शंकित, सहमे
जिनकी स्मिति से चीते
नव यौवन-क्षण बीते
मध्य निशा गीत उन्हींका तुझको पास बुलाये

प्रेम न कहलाये, सखि! ,तेरा गुड़ियों का व्यापार
उठ, ओ रूप-गर्विते! फिर-से कर नूतन श्रृंगार!
तड़प रहा है हृदय तुम्हारा देख निठुर व्यवहार

1946