usar ka phool

प्रथम दर्शन

रूपसि! तुम शशिकर-सी सुंदर, नव शशि-रेखा-सी मन हरती
स्वर्गगा की लघु लहरी-सी उर में स्वर्गीय विभा भरती
जौ के अंकुर-सी नम्र उगी, कृश दीपक की लौ-सी कंपित
वानीर वृंत की परछाईं-सी, सरसी में झिलमिल करती

तुम उषाकाल की कुसुम-अवलि, मधुपों से अभी अछूती हो
पतझड़ के पिक की कूक, अरी! तुम तो वसंत की दूती हो
तुम कृश-काया माया जैसी विभु की, सुरधनु की छाया-सी
बाँसुरी-सदृश मृदु-तानभरी, प्राणों के स्तर-स्तर छूती हो

तुम वेद-ऋचा की उपमेया-सी, नख से शिख तक पूरी हो
तुम पंक्ति प्रेम के भूले-से गायन की एक अधूरी हो
पावन कुमारिका की स्मिति-सी, तुम प्रणय-भावमय परिचय की
जो निज में कभी समा न सकी, तुम वही क्षितिज की दूरी हो

पावस-बूँदों की प्रथम लड़ी-सी, तुम आभा की मतवाली
मृदु कुसुम-छड़ी-सी मन्मथ के कर की, शर-सी बिंधनेवाली
जलनिधि के तल में कंपित तुम, शतरत्नच्छाय लता जैसी
तुम दुबली-पतली नील-गगन में विद्युत-रेखा-सी, आली!

तुम नील विभा की उगी तिमिर की, नन्हीं-सी तारिका नयी
उँगली से छूई हुई तुरत की, छुईमुई-सी लाजमयी
तुम एक तार-सी, स्वजनि! एक तारा की, लय में बँधी अलस
तुम मुकुलित जूही-कलिका-सी जो माला में गूँथी न गयी

तुम पतली मधु-निर्झरिणी-सी गुंजित उपलों में कल-कल-स्वर
तुम क्षीण उषा-सी खड़ी विहँसती उदयाचल की चोटी पर
तुम श्याम कसौटी पर खींची तप चुके स्वर्ण की रेखा-सी
उर्वशी-भृकुटि-सी चढ़ी धनंजय-धनु की तुम शिंजिनी सुघर

तुम निशि-मृणाल-सी कमल-बदन में स्वर-मधुकर नि:स्पंद लिये
तुम हरित-कंचु प्रात:-दुर्वा-सी किरणों का मकरंद पिये
तुम क्षितिज-तटी-सी क्षीण-कटी, सचकित सिमटी आलिंगन में
मंदस्मित, झुक सागर का जल पीते घन-सी, दृग बंद किये

अधखुले कपाटों से आयी तुम क्षीण, कक्ष में राका-सी
तुम प्रावृट-श्याम पुतलियों में उड़ती क्रमबद्ध बलाका-सी
तुम अगुरु-धूम-सी, चूम अधर घुल गयी श्वास-सौरभ में जो
तुम अरुण किसलयों में उड़ती मन्मथ की विजय-पताका-सी

1941