usar ka phool

पावस-संध्या

पावस की यह संध्या उदास
बिखरी तृण-तरु, कलि-कुसुमों में

झाड़ी-झुरमुट के आस-पास

दो विहग तिमिर में निष्प्रभ-से
उड़-उड़कर मुड़ आते नभ से

दिग्वधुएँ करतीं मंद हास

सरिता- से गिरि-प्रांतर तक
सब शांत, मौन, विस्मित, अपलक
गतिशून्य लहरियाँ रहीं भटक
दिन की कठोर यात्रा से थक

नीला विषाद-दृग गगन देख
आँसू-सा तारा उगा एक
नत मुख सरसिज-कलियाँ अनेक
दिन गया किरण के चरण टेक

गायें कर पदरज-धूसर मग
पहुँची अब गाँवों के लगभग
लघु नौकायें डगमग-डगमग
तिरतीं लहरों पर अलग-अलग

दूरस्थ ताल-तरु से उठकर
आता कंपित अजान का स्वर
कवि विकल वेदना से कातर
सूने ये संगीहीन प्रहर

भरता अभाव की एक साँस
पावस की यह संध्या उदास

1941