vyakti ban kar aa
जब कहीं कुछ भी नहीं था
तब क्या था?
दिशा और आकाश तब कहाँ थे,
काल तब कहाँ था?
अस्तित्व के पूर्व तब मैं शून्य की
किन घाटियों में विचरता था?
अव्यक्त अधिभूत तब कहाँ थे!
अजन्मा चित क्या करता था?
उस कालहीन अनंतता में,
जब न दृश्य थे, न देखनेवाले
अगणित ब्रह्मांड एक बिंदु में सिमटे
हो चुके थे महाशून्य के हवाले
जब यह नीलाभ व्योम भी नहीं था,
न कहीं तारों की अल्पना थी,
तब किस अज्ञात शक्ति के मन में
सृष्टि की यह परिकल्पना थी?
ओ पिता! विस्मृति की उस अंधनिशा में
तू कहाँ छिपकर सोया था?
क्या मैं भी वहाँ तेरे अचेतन में
अनजान स्वप्न बनकर खोया था?
नाम और रूप से हीन जब तू
अनस्तित्व के अंधकूप में था,
उस समय यह प्रकृति कहाँ थी!
मेरा ‘मैं’ किस रूप में था?
मुझे तो लगता है, मेरा प्रेम
उस समय भी जाग रहा था,
रो-रोकर मचल-मचलकर वह तुझसे
अस्तित्व की भीख माँग रहा था।
उसीकी प्रेरणा तुझे मेरी माँ के पास
खींच लायी थी,
उसीके कारण तम में
यह चेतना की लौ मुस्कुरायी थी।
महाशून्य के गर्भ से तब
कोटि-कोटि ब्रह्मांड छूट पड़े थे,
अणु-अणु में सोये हुए,
शक्ति के अनंत स्रोत फूट पड़े थे।
यों तो नियमों में बँधा प्रत्येक परमाणु
आप अपने में शक्तिहीन था,
किंतु सब का नियामक तू
अब भी स्वाधीन है, तब भी स्वाधीन था।
माना कि आदि-माँ प्रकृति
अब भी तेरे बंधनों में जकड़ी है,
रह-रहकर उसे मेरे आँसुओं की
घोर पीड़ा झेलनी पड़ी है;
परंतु वह यह जानती है
कि तू प्रतिनिमिष मेरा ध्यान रखता है,
ज्वाला की लपटें कितनी भी तीव्र हों,
मुझे चिर-अम्लान रखता है।
जब भी हृदय की गहराइयों से उठकर
मेरा क्रंदन तुझ तक पहुँच जाता है,
सारी विधि-व्यवस्थाओं को लाँघकर
तू मुझे बचाने चला आता है।