vyakti ban kar aa

माना, तू निर्गुण, निर्लिप्त, निष्क्रिय है,
फिर भी कितना विनोदप्रिय है!
तूने मुझे यह मोहक रूप क्‍यों दिया
यदि मुझे सदा अंधों के बीच ही रहना था!
मेरे ओंठों से ऐसी सुरीली तानें क्‍यों फूटीं
यदि तेरा संदेश मुझे बहरों से ही कहना था!
क्यों मैं नौका पीठ पर लादे-लादे
सारी आयु रेत के टीलों में दौड़ता फिरा!
क्या इन शिलाखंडों को रिझाने के लिए ही
मैंने गले में यह हीरों का हार पहना था!