kavita

मैं कवि के भावों की रानी

मेरे पायल की छूम छननन
गुंजित कर देती जग-उपवन
जड़ भी हो उठते हैं चेतन

पाषाणों को मिलती वाणी

भर जाती सुषमा के मधुकण
अलसित पलकों में स्वप्न सघन
मैं कवि की कुटिया में छन-छन

आती अम्बर से दीवानी

मेरे अस्फुट कंठों का स्वर
प्रतिध्वनित हुआ जग-वीणा पर
दुहराया करता है सागर

मेरे ही अंतर की वाणी

संध्या मेरा परिधान पहन
आती नभ-प्रांगण में बन-ठन
ले मेरी मधुमय गंध सुमन

कहलाता जगती पर दानी

संसार निखिल मधु-घट मेरा
नव प्रकृति मनोरम पट मेरा
कवि का मानस पनघट मेरा

नटनागर कवि की कल्याणी

कवि कलित कल्पना के स्तर पर
देता मुझको गीतों में भर
सुन-सुन जग ने जिनका मृदु स्वर

जीवन की सार्थकता जानी

जब देख मुझे था जग विस्मित
मैं उसे लगी थी चिर-परिचित
युग-युग से हत्‌-पट पर चित्रित

युग-युग की जानी-पहचानी

मैं मूक हृदय की भाषा हूँ
मैं जीवन की परिभाषा हूँ
कवि की अतृप्त अभिलाषा हूँ

जो फूट पड़ी बन युग-वाणी

वेदना-सिंधु के बीच पली
नयनों से मोती बन निकली
पाने वह मृदु मुक्ता-अवली

दौड़ी दुनिया बन दीवानी

कुहुकी कोयल काली काली
मैं मधुमट भर लायी, आली!
उठ,कवि! ले सपनों की प्याली

रे, आज ढलेगी मनमानी

मैं कवि के भावों की रानी

1939