kavita
श्मशान
ओ त्यक्त महीतल के अंचल!
ओ महाकाल के वासस्थल!
दुख की ज्वाला से दग्ध, विकल
ओ जगती के उच्छ्वास प्रबल!
संसृति निज गति में लुप्त-प्राय
अपना सब सूनापन समेट
सूनेपन की प्रतिमा सजीव
रे, तुझको ही दे गयी भेंट
असफल प्रणयी की आँखों का
तुझमें है यह अंकित स्वरूप
या किसी व्यथित ने दे डाला
तुझको अपना वैभव अनूप
किस अकरुण कर द्वारा तुझको
नीरवता का परिधान मिला!
किस निठुर प्रेयसी से अशांत
यों जलने का वरदान मिला!
किसके प्राणों का भग्न राग
किसका मूर्छित अरमान मिला!
किस अंतर की शोकानुभूति
किसका क्रंदनमय गान मिला!
यह अंतरव्यापी दाह प्रबल!
पीता तू आठों याम गरल
ओ त्यक्त महीतल के अंचल!
ओ महाकाल के वासस्थल!
कितना कठोर यह वक्षस्थल!
कितना निर्मम, निष्ठुर स्वभाव!
सदियों से जग के रोदन का
जिस पर न पड़ा कुछ भी प्रभाव
तू रहा देखता ही निश्चल
उठ पायी अंतर में न पीर
हो गये यहीं पर क्षार-क्षार
फूलों-से वे कोमल शरीर
छिप गयीं इसी नीरवता में
कितनी अभिलाषायें अपूर्ण
कितने हृदयों के चिर-पोषित
हो गये स्वण-प्राचीर चूर्ण
सो गये धूलिकण में तेरे
कितने प्राणों के मूक गान
खो गयीं यहीं पर रोदन में
कितनों की मुस्कानें अजान
इस सूनेपन में हुआ लुप्त
अस्फुट कंठों का करुण राग!
उड़ गया यहीं पर क्रंदन बन
कितने अरमानों का पराग!
सुख की निद्रायें भंग हुईं
ले उड़ा स्वप्न-सौरभ समीर
आँसू बनकर बह गयी यहीं
कितने हृदयों की तीव्र पीर
आ मृत्यु-भवन के प्रहरी! कह
क्या हूक न उठती है रह-रह!
किस भाँति सहन कर पाता तू
यह अंतर की ज्वाला दुःसह!
1939