nahin viram liya hai
न तू सुधि लेता इस जन की
क्या-क्या गत न बनाती मेरी, यह चंचलता मन की!
सजा हुआ था फूलों से वन
पग-पग पर थे विकट प्रलोभन
कैसे मैं रह पाता चेतन
सुरा पिये यौवन की!
नित नव सुर से मुझे लुभाता
कहाँ-कहाँ जग था न फिराता!
खो जाता मैं यदि न जगाता
तू दे ठेस चरण की
यदि मैं कोटि जन्म भी लेकर
तेरे गुण गाऊँ निशि-वासर
उस करुणा का मोल न तिल भर
जो तूने क्षण-क्षण की
न तू सुधि लेता इस जन की
क्या-क्या गत न बनाती मेरी, यह चंचलता मन की!