prit na kariyo koi
दूसरा सर्ग
शहर आगरे का जो मशहूर है
जहाँ हर तरफ ताज का नूर है
बड़ी दूर से आके प्रेमी जहाँ
लिये साथ अपने नयी बीबियाँ
खिली चाँदनी में पहुँच ताज पर
खुशी से भरे घूमते रात भर
वहीं शाम की ख़ुशनुमा थी घड़ी
नज़र जब कहीं जाके मेरी अड़ी
खिला चाँद पूनम का हो जिस तरह
हिमालय की चोटी पे जैसे सुबह
हथेली पे लहराये मोती का आब
दिखे बाग़ में जैसे खिलता गुलाब
मेरे सामने अप्सरा जैसे एक
खड़ी थी झरोखे पे कुहनी को टेक
निगाहों में बिजली का था ज्यों असर
गयी कौंध-सी मेरे दिल में उतर
जो पहली नज़र का बताते हैं प्यार
हुआ मेरा दिल था उसीका शिकार
किताबों में जिसको बहुत था पढ़ा
नशा था वही जैसे मुझ पर चढ़ा
करूँ हुस्न का कैसे उसके बयान
जहाँ शायरी मेरी है बेज़बान
कोई लफ्ज ऐसा नहीं सूझता
अदाओं को उसकी करे जो अदा
कई बार पहले भी उलझी नज़र
हसीन एक-से एक देखे मगर
किसीने न दिल यों छुआ था कभी
न बेचैन मैं यों हुआ था कभी
पिघल बर्फ-सा प्यार की आँच से
लहू धमनियों में लगा नाचने
दिखा जैसे मूसा की आँखों को तूर
मिले ज्यों किसी को पड़ा कोहेनूर
कभी पुरुरवा का हुआ था ये हाल
दिखी जब उसे उर्वशी खोले बाल
कभी इंद्र को जिसने भरमाया था
वही हुस्न ज्यों सामने आया था
गए आप ही मेरे रुक-से क़दम
उठा जाग सीने में सदियों का ग़म
छिपी धड़कनों में जो दिल की रही
खड़ी थी निगाहों के आगे वही
मैं बेताबियाँ दिल की कैसे कहूँ!
लगा बस उसे देखता ही रहूँ
गयी छूट जो उस जनम में कहीं
लगा जैसे वह आ गयी है यहीं
बहुत दूर घर से मिली आज है
मेरी रूह की ही ये आवाज़ है
इसे पा गया हूँ बड़े भाग से
कहीं अब न फिर यह किनारा करे
कुछ ऐसा ही आलम था उस ओर भी
निगाहें थीं पकड़े गये चोर की
वो पहले झिझकती मुड़ी, फिर रुकी
तनिक मुस्कुराकर थी तिरछी झुकी
लगा उसके दिल को भी शायद यही
कि जीने का हासिल हुआ आज ही
छिपी तो बहुत लाज की आड़ में
बचाता है तिनका मगर बाढ़ में!
नहीं था फ़क़त दो निगाहों का मेल
वो जीने की बाज़ी थी, मरने का खेल
उतरती हुई चाँदनी देखकर
समंदर में उठती हो जैसे लहर
न था प्यार दिल में किसीके भी कम
थे तन दो मगर मन से थे एक हम
हुई कब से दो आत्मायें अलग
इसी दिन को जैसे रही थीं भटक
तलब भी वही शायरी की हो जान
बनूँगा ख़ुद ऐसा, नहीं था गुमान
लगा जैसे अब तक जिया ही न था
कभी मैंने कुछ भी किया ही न था।
यही जी में आता था बस बार-बार
“न उतरे कभी जान से यह बुख़ार
रहे सारी दुनिया अधर में टँगी
कटे बस इसी हाल में ज़िंदगी”
मगर वह था परदेश का मामला
ठहरता भी कितने दिनों मैं, भला!
जहाँ चार दिन सैर की बात थी
वहाँ दिल पे ऐसी हुई घात थी
कि हफ़्तों का भी था नहीं कुछ पता
मुझे आख़िर अपनी उमंगें दबा
ग़ज़ल की वही गुनगुनाते कड़ी
कि “काबे में बुत पर नज़र है पड़ी!
इरादा पलटने का करना पड़ा
कलेजे पे पत्थर भी धरना पड़ा
भले ही थे आँखों में सपने हज़ार
न था उसके दिल को मगर एतबार
भनक पाके वह इस इरादे की झट
गयी आके मेरे गले से लिपट
कहा–‘ कैसे जाते हो, देखूँगी मैं
तुम्हें अपनी नज़रों से कस लूँगी मैं
गिरे टूट पत्थर की दीवार भी
न टूटेंगी ये बेड़ियाँ प्यार की
बना राह भी दो पहाड़ों को काट
मिला दो उफनती नदी के भी पाट
न पर लाँघ पाओगे जादू मेरे
मेरा प्यार, आँखों के आँसू मेरे!
बहाना नहीं कुछ भी करते बना
पड़ा मोम का आग से सामना
कहा मैंने झट उसकी पलकों को पोंछ
“जो चाहेगी, होगा वही, कर न सोच
भले ही गिरे टूटकर आसमान
न छोड़ूँगा तुझको कभी, मेरी जान!’
मगर आँधियों में लगा दे गिरह
कोई वक्त को रोक ले किस तरह!
है यह ज़िंदगी सिर्फ चलने का नाम
न मंजिल है इसमें न कोई मुक़ाम
मुझे तोड़नी ही पड़ी अपनी आन
नहीं टूटकर तो गिरा आसमान
मगर दिल पे गुज़रा जो तूफान था
नहीं झेलना उसको आसान था
जुदाई के दिन का कहूँ हाल क्याग!
कलेजा था टुकड़े ही टुकड़े हुआ
रही देर तक आँसुओं की झड़ी
क़यामत की ज्यों आ गयी थी घड़ी
लगा ‘भीड़ में फिर से खो जायगी
ये सूरत न फिर मुझको दिख पायगी
इसे कसके यों बाँध लूँ बाँह में
कि बिछड़े नहीं फिर कभी राह में
यही है मेरी शायरी, मेरी जान
न छोड़ूँ इसे चाहे छूटे जहान’
उधर का भी था मेरे जैसा ही हाल
लटें खुलके बिखरी थीं, गीले थे गाल
लिये पान, आँखों में आँसू भरे
कहा उसने जीने की चौखट धरे
“चले तो मगर, हाय! जाने के बाद
कभी फिर मुझे तुम करोगे भी याद!
अभी कल ही हाथों में ले मेरा हाथ
कहा था “कभी अब न छोड़ूँगा साथ
मुझे तेरी ख़ातिर है सब कुछ क़बूल’!
गये कैसे दम भर में वह बात भूल!
यहाँ ताज पर अब मज़े होंगे खूब
सभी राग-रंगों में जायेंगे डूब
मचेगी यहाँ अब जो सावन की धूम
न पाओगे वह सारी दुनिया में घूम
रहोगे तुम्हीं, पर, न जब मेरे पास
भला कैसे वह मुझको आयेगी रास!
‘हुई जब न तुमसे मुलाकात थी
यही चाँद, सूरज थे, दुनिया यही
बदल सब गये आन की आन में
चले रोग कैसा लगा जान में!
हुए बंद आँधी से घर के किवाड़
अँधेरा है बाहर, सड़क है उजाड़
सभी ओर काली घटा छा रही
तड़प कर है बिजली भी तड़पा रही
कहो, मेरी आँखों से आँखों को जोड़
कोई ऐसे मौसम में जाता है छोड़!
‘जुदाई के दिन तो दिये दस गिना
जिऊँगी भी दो दिन तुम्हारे बिना!’
ये कहकर ‘न जाओ, न जाओ, पिया!’
मेरी बाँह पर उसने सिर धर दिया
भरे आँसुओं से गुलाबी पलक
सिसकती रही जब खड़ी देर तक
उसे मैंने फिर-फिर दिलासा दिया
बहुत जल्द आने का वादा किया
लटें उसकी सहला, गले से लगा
कलेजे पे रख हाथ, धीरज बँधा
कई बार खायी क़सम प्यार की
निगाहों की बेड़ी तभी खुल सकी