kitne jivan kitni baar
समझो बस प्रवास ही झेला
जीवन भर चलता आया हूँ मैं जो यहाँ अकेला
क्या यह मरुथल गहन लाँघकर
पहुँचूँगा जब अपनी भू पर
घेर न लेगा मुझको सादर
बंधुजनों का मेला!
कितने जो पहले निकले थे
क्या न मुझी-से तपे, जले थे!
लौटे घर कुछ ही बिरले थे
सहे बिना अवहेला
फिर मैं ही क्यों धीरज खोऊँ!
इस असंग जड़ता पर रोऊँ!
क्यों न रत्न-सा उन्हें सँजोऊँ
जिन उपलों से खेला!
समझो बस प्रवास ही झेला
जीवन-भर चलता आया हूँ मैं जो यहाँ अकेला