hum to gaa kar mukt huye
कवि के मोहक वेश में
जन्म लिया होता यदि मैंने भावुक बंग प्रदेश में!
नैश जागरण से रतनारी दृग-पुतलियाँ फिरातीं
जब प्रभात में ग्राम-युवतियाँ नदी-तीर पर आतीं
मर्दित कुसुमों की मालायें कसती शलथ वेणी में
जल भरते-भरते जब वे कुछ गातीं धीमे-धीमे
तब मेरी भी ग़ज़ल सुनाई पड़ती उस परिवेश में
अलस दुपहरी में मृदुगति नौका पर तिरछे लेटे
जब भटियाली राग छेड़ देते धीवर के बेटे
पूरे कर गृहकार्य भेजकर शिशु को शिक्षालय में
काटे कटता नहीं समय जब माँ का शून्य निलय में
तब मेरे भी पद मिल जाते उनके काव्य अशेष में
माँग भरे सिंदूर, धरा तर्जनी चपल शिशु-कर में
दीप जलाने को जातीं जब वधुएँ पूजाघर में
जन-उद्यानों में स्थल-स्थल पर युवकों के दल दिखते
कुछ गाते, कुछ चित्र बनाते, कुछ पढ़ते कुछ लिखते
तब मेरे भी गीत गूँजते वहाँ दिवस के शेष में
जब मंदिर में जुड़े भक्तगण झाँझ-मृदंग बजाते
गा-गाकर निज ईष्टदेव के चरित नाचते जाते
जब वे अपनी व्यथा सुनाते रवि ठाकुर के स्वर में
देवालय हिचकोले खाता करुणा के सागर में
तब मेरे भी स्वर लहराते उनके भावोन्मेष में
प्रथम सुहाग रात में मिलते जब दो हृदय अपरिचित
शंकित, विस्मित, पुलकित, सुरभित, अवगुंठित, आंदोलित
होड़ लगाकर आपस में जब वे प्रिय काव्य सुनाते
आलिंगन को तड़प रही प्यासी बाँहें फैलाते
तब मेरी भी कृति उर से लगती सुख के आवेश में
कवि के मोहक वेश में
जन्म लिया होता यदि मैंने भावुक बंग प्रदेश में
अगस्त 86