hum to gaa kar mukt huye
यह रत्नों का हार किसे पहनाऊँ?
नहीं कहीं जो मुझको क्षण में
भर लेते निज भुजबंधन में
देख-देखकर मुँह दर्पण में
कब तक जी बहलाऊँ!
माना, रल नहीं कुम्हलाते
प्रिय-उर पर नव-नव द्युति पाते
कहीं न वह दिन आते-आते
मैं ही कुम्हला जाऊँ!
संभव है, मैं नहीं रहूँ जब
रल और ये चमक उठें सब
क्या पाऊँ मैं जीवन से तब
याद भले ही आऊँ!
यह रत्नों का हार किसे पहनाऊँ?
जुलाई 86