mere geet tumhara swar ho
क्षमा का ही केवल आधार
निज कर्मों से तो, प्रभु! मेरा कभी न हो निस्तार
ज्ञान-भक्ति की निधि जो पायी
लोभ-मोहवश गयी भुलायी
मैंने कुटिल कुमति अपनायी
मन से मानी हार
अब नित कितना भी पछताऊँ
कृत को नहीं अकृत कर पाऊँ
कैसे चित् में स्थिरता लाऊँ
यदि तुम लो न उबार
मैं यह कब कहता कि कर्मफल
धो दो बहा स्नेह-गंगाजल!
कैसी भी स्थिति हो, दो वह बल
करूँ सहज स्वीकार
क्षमा का ही केवल आधार
निज कर्मों से तो, प्रभु! मेरा कभी न हो निस्तार